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खोलो दिलों के बंधन , अजी कुछ तो बोलो

Written By मनवा on 25.4.12 | 1:58 pm

बचपन  में हम सभी ने इक़ कहानी सुनी थी | इक़ राजा था जिसके सर पे इक़ सींग था | ये बात सिर्फ उसका नाई { बाल काटने वाला } ही जानता था | राजा के कठोर आदेश थे,  की ये बात कभी भी किसी से नहीं कही जाए | मनोविज्ञान कहता  है|  की आप अपने दिल और दिमाग  से जिस काम को करने के लिए मना करेगे | वो वही करेगा | नाई ये राज कब तक अपने मन में रखता | इक़ दिन वो अपनी बात को किसी के साथ  बांटने के लिए तड़प उठा | और घने जंगल में इक़ पेड़ से वो बात कह दी | बरसों बाद उस पेड़ की लकड़ी से तबले , ढोलक  बनाये गए | और किसी  संगीत कार ने जब उन्हें राजा के सामने बजाया तो | जानते है क्या हुआ ? तबला , ढोलक सभी ने  नाई की बात को दोहरा दिया | की राजा के सर पे सींग है | राजा हैरान और नाई परेशान की ये क्या हुआ | कैसे हुआ | 
उसे ये शेर याद आया  होगा की " कभी कहा नहीं किसी से तेरे फ़साने को | ना जाने  कैसे खबर हो गयी  जमाने को " |  ये बात शुरू करने का महज बहाना  था | असल बात तो ये है की | हमारी अनुभूतियाँ , हमारे अहसास , हमारी भावनाए , अगर हम किसी के साथ नहीं बांटते तो वे किसी ना किसी रूप में व्यक्त हो ही जाती है |यहाँ तक की प्रकृति भी खुद को व्यक्त कर देती है | जैसे  समन्दर  अपने अहसास, अपने दर्द को अपने आसुओं को ,नमक में बदल देता है | उसकी आह, भाप बनकर आसमान तक जाती है | उसकी तड़प , बैचेनी  लहरें बनकर फ़ैलती है | पहाड़  अपने चेहरे पर कितना दर्द लिए होते है | उनकी इक़ इक़ परत को ध्यान से देखो | प्रेम से छुओं तो सांस लेते से लगेगे | फूल , खुश्बू के   बहाने व्यक्त होते हैं | आसमान , बूंदों  के माध्यम से प्रेम पत्र लिखता है | पंछी , नदिया , पवन के झोकें  जब सभी खुद को उजागर कर देते है तो हम इन्सान क्यों खुद  को छिपाते है | 
 कहते है शब्द अमर है | मैं कहती हूँ अनुभूतियाँ  अमर है |अव्यक्त भाव , अनुभूतियाँ गर व्यक्त ना हो तो रोग की शक्ल ले लेती है |  और अब विज्ञान भी कहने लगा, की देह की सभी बीमारियाँ  पहले मन के धरातल पर ही जन्मती है | दिमाग  का ज्यादा इस्तेमाल करने वालों को | तर्क में उलझे हुए लोगो को अक्सर दिमाग के रोग और दिल पे हर बात लेने वाले को दिल के रोग होते है | अपनी अनुभूतियों को दबाकर , छिपाकर ,कुंठाग्रस्त होने से बेहतर है हम किसी से कह दे | अपना  हाले दिल .......
जबसे लोग ज्यादा बुद्धिजीवी हो गए | समझदार हो गए | ज्ञानी हो गए | प्रसिद्ध हो गए | बड़े बन जाने  का रोग  लग गया | उसी पल से लोगो ने खुद को छिपाना  शुरू  कर दिया  |  खुल के हंसना नहीं | खुल के रोना नहीं | जोर से बात नहीं करना |  ऐसे लोग सारी उमर बड़ी ही अदा और बनावटी पन  से अपने काम करते है | अपने भीतर किसी को आने नहीं देना | किसी से भी आत्मीय नहीं होना | आत्मीय होने के बड़े खतरे है ना | कोई आपके भीतर झाँक के देख लेगा तो ....?  भेद , भेद नहीं रह पायेगे | कमजोरिया , कमियाँ दिख  पड़ेगी | क्या कहेगे लोग?  क्या छवि  बनायेगे ? क्या प्रतिक्रियां  होगी ? जान लेंगे सब | ये डर , ये संशय , बुद्धि और समझदारी , सभी अनुभूतियों को छिपा देती हैं | और लोग जीवन भर इनकी ओट में सुबकते रहते हैं | सिसकते रहते है | अपने अपराधबोध , अपनी पीडाएं , अपने दर्द को अपने डर , अपनी कुंठाओं के साथ ,  अनकहे  की  पीड़ा के वजन को ढ़ोते रहते हैं | और इक़ दिन इसी बोझ के साथ दुनिया से चले जाते है | लेकिन लेकिन लेकिन ...........
तो क्यों चुप रहा जाए | अपनी भावनाओं  के रेगिस्तान में रेत -रेत होकर होकर क्यों बिखरे ? जैसे है वैसे क्यों ना दिखे | दिन भर हँसने , हंसाने   का ढोंग करना और रातों को छुप छुप के  रो लेना क्या ठीक है ? टूट ना जाये इसलिए लोहे के कवच पहन लिए | गिरने के डर से जमीन पे ही सो गए | क्यों ? प्रेम में होना चाहते है | प्रेम में गिरने से डरते है | कहने से डरते हैं | अपने सर पर हमेशा अपने अहम् का मुकुट सजाये  फिरते हैं | कवि है तो कविता की ओट में छुप जायेगे | दार्शनिक है तो दर्शन में | जोगी , तो जोग में | योगी है तो योग में | जादूगर है तो जादू में | खिलाड़ी है तो खेल में | लेकिन साहब - खेल के बाद , तमाशे के बाद , महफ़िल उठ जाने के बाद , भीड़  के चले जाने के बाद  फिर अकेले | अपनी अनुभूतियों के साथ | हजारों की भीड़ में क्यों तन्हा हो गए ? इसलिए की  किसी से कहते नहीं कुछ भी | खुद को  क्यों छिपाए ? अच्छा लगे तो कह दे | बुरा लगे तो भी कह दे | जो अनुभव करे उसे व्यक्त करे | अनकहे के बोझ तले दब कर क्यों मरे ? ये चुप सी क्यों लगी है ? अजी कुछ तो बोलिए । खोलो  दिलों के बंधन , अजी कुछ तो बोलो  ----ममता व्यास ,  भोपाल 

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